आलूरि बैरागी - दक्षिण के सशक्त हस्ताक्षर

चंद्र मौलेश्वर प्रसाद


हिंदी साहित्य के इतिहास में दक्षिण साहित्यकारों का उल्लेख उतना नहीं हो पाया जितने की अपेक्षा है।  ऐसे में, आलूरि बैरागी चौधरी का नाम इस बात का साक्षी है कि उनकी लेखनी ने साहित्यकारों, इतिहासकारों और पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है।  उनके जीवनकाल में केवल एक ही हिंदी कृति ‘पलायन’ नाम से प्रकाशित हुई थी।  इसी के माध्यम से हिंदी जगत में उन्होंने अपना स्थान बनाया।  

बैरागी जी का जन्म आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के तेनाली शहर के ऐतानगर कस्बे में सन्‌ १९२५ में वेंकटरायुडु और सरस्वती के घर में हुआ जो एक प्रतिष्ठित किसान परिवार था। बचपन से ही वे स्वभाव से सीधे, सरल और स्पष्टतावादी थे। उनका व्यक्तित्व मनसा, वाचा, कर्मणा एक ही था। उनके हृदय में मानव के प्रति  अटूट आस्था थी।

बैरागी जी का बचपन तो शांतिपूर्व बीता पर बाद का जीवन संघर्षपूर्ण रहा। बीस वर्ष की आयु में वे प्रतिपाडु हाई स्कूल में अध्यापक बने। उन्होंने अपना लिखना-पढ़ना नहीं छोड़ा और अंग्रेज़ी, तेलुगु, हिंदी के साथ-साथ संस्कृत और उर्दू के भी ज्ञाता बने।  सन्‌ १९५० में उन्होंने अध्यापकी छोड़ी और मद्रास चले गए जहाँ उनके चाचा श्री चक्रपाणी एक प्रतिष्ठित एवं सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता थे।  उन्होंने अपनी प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘चंदामामा’ के हिंदी संस्करण का कार्यभार बैरागी जी को सौंपा।  इसकी ख्याति भी एक बेचैन कवि की आत्मा को संतुष्ट नहीं कर सकी। इस नौकरी को त्याग कर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में डेढ़ वर्ष तक कार्य किया और फिर इसे छोड़ कर स्वतंत्र लेखन प्रारम्भ कर दिया। एक कवि का जीवन धनाभाव में संघर्षमयी तो रहेगा पर उनके स्वाभिमान ने उन्हें किसी के आगे हाथ फैलाने नहीं दिया।

बैरागी जी ने जाति, धर्म, कुल तथा देशकाल की सीमाओं से परे मनुष्य और उसके कल्याण के लिए कलम उठाई।  तभी तो उन्होंने कहा था-
रक्त स्वेद कर्दम के ऊपर
मानवता का नलिन खिला है
युग-युग के जीवन विकास में
अभ्युन्नति का पथ मिला है।
       [संशय की संध्या-पलायन-पृ.३]

हिंदी कविताओं के साथ-साथ उन्होंने तेलुगु रचनाएँ भी लिखी हैं।  उनकी हिंदी कृति ‘पलायन’ में गीत, प्रगीत और नई कविता की शैली में लिखी गई चौबीस कविताएँ संकलित हैं।  इसके अलावा उनकी अनेक उत्कृष्ठ हिंदी कविताएँ अभी तक अप्रकाशित ही रह गई हैं।  एक योजनानुसार ‘नील गगन चन्दन सा चाँद’ शीर्षक से अस्सी गीत प्रकाशित होना है।  २००७ में आलूरि बैरागी के तीन कविता संग्रहों का प्रकाशन प्रो. पी.आदेश्वर राव के प्रयासों से हुआ है।  ‘संशय की संध्या’ में उनकी बयालीस कविताएँ संग्रहित हैं।  ‘प्रीत और गीत’ संग्रह में बैरागी की सौ कविताएँ संकलित की गई हैं और ‘वसुधा का सुहाग’ में पैतालीस प्रयोगवादी कविताएँ दी गई हैं।  बैरागी की इन कविताओं में विषय वैविध्य के साथ शैली वैविध्य भी देखने को मिलता है।

बैरागी   की   कविताओं   में  कृतिक और विकासात्मक मानवतावाद की झलक देखने को मिलती है जिसे
उनकी कविता ‘रुग्ण जीवन’ की इन पंक्तियाँ देखा जा सकता है :  
यहाँ धूल का हर ज़र्रा है
किसी पवित्र रक्त से सींचा,
इसी लोक पर किसी दास ने
वैभव का हिंसा-रथ खींचा॥  

इसी प्रकार, आध्यात्मिक चेतना से ओत-प्रोत कविता की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
रुक जा! ओ अनन्त के प्रेमी!
जीवन तुझे पुकार रहा है
तुझे लुभाने के हित ही तो
धरणी का श्रृंगार रहा है।    [जागृति गान]  

अराजकता, भ्रष्टाचार, घटते जीवन मूल्य पर मौन जनता को जब कवि देखता है तो अनायास कह उठता है-
मानवता है कहाँ अरे! यह गूंगे पशुओं की जमात है
हाँ सज-धज कर कहीं जा रही ज़िंदा लाशों की बरात है॥
                                                                   [गीतमंजरी]

बैरागी तेलुगु भाषा के भी प्रसिद्ध कवि रहे हैं।  उनकी कृति ‘आगमगीति’ को केंद्रिय साहित्य अकादमी पुरस्कृत कर चुकी है।

हिंदी, तेलुगु और अंग्रेज़ी की उनकी कितनी ही अप्रकाशित लेखनी अभी भी दिन का उजाला नहीं देख पाई।  शायद उनका स्वाभिमान ही रहा जिसके कारण उन्हें किसी के आगे हाथ फैलाकर इन्हें प्रकाशित करना मंज़ूर नहीं था।  अपने स्वाभिमान व लेखनी के बारे में बैरागी ने खुद कहा है-

यह न सोचना- हाँ, यह भी कुछ लिखता है
यश के सुवर्ण द्वार पर पड़ा पड़ा
कृपा भिक्ष की आशा रखता है॥

संदर्भ ग्रंथ- आलूरि बैरागी की कविताओं में मानवतावाद- डॉ. पेरिसेट्टि श्रीनिवास राव   

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cmpershad द्वारा कलम के लिए 12/03/2010 09:27:00 PM को पोस्ट किया गया

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